पहले रूस यूक्रेन फिर हमास इजराइल और अब ईरान और इजराइल कुल मिलाकर इनडायरेक्टली थर्ड वर्ल्ड वॉर चल रहा है पूरी दुनिया कई हिस्सों में बटी हुई है कोई इजराइल का साथ दे रहा है तो कोई ईरान का कोई रूस के साथ नारे लगा रहा है तो कोई रूस के खिलाफ लेकिन भारत अभी भी न्यूट्रल है और इसका यह न्यूट्रल रवैया आज से नहीं है बल्कि सदियों से रहा है दरअसल भारत यूजुअली दूसरे देशों के विवाद में डायरेक्ट इंटरफेयर नहीं करता आज तक ऐसे सिर्फ दो ही इंसिडेंट लोगों को याद होंगे पहला इंदिरा गांधी का बांग्लादेश की मदद के लिए सेना भेजना और दूसरा राजीव गांधी का एलटीटीई यानी लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम के खिलाफ श्रीलंका में मिलिट्री इंटरफेरेंस और इन दोनों की सजा इसे भुगतनी भी पड़ गई उधर बांग्लादेश बन गया इधर एलटीटीई ने राजीव गांधी को मरवा दिया लेकिन इसके अलावा एक इंसीडेंट और है जब भारत ने अपनी सेना मैदान में उतारी और मसीहा बन गया हम बात कर रहे हैं कोरिया युद्ध की जी हां लेकिन आज वहां कंडीशन बिल्कुल अपोजिट है जो लोग कल तक भारत को फरिश्ता मानते थे वह आज उसके एहसानों को भूल क्यों गए तो आखिर ऐसा क्या किया था भारत ने और क्यों अब कोरिया का नजरिया भारत के लिए पूरी तरह बदल गया है इस स्टोरी को समझने के लिए हमें शुरू से शुरू करना पड़ेगा तो बने रहिए एंड तक हमारे साथ तो साहब बात 20वीं सदी की शुरुआत की है जब एशिया कॉन्टिनेंट में दो कॉलोनियल पावर्स आपस में भिड़ रही थी वो भी जमीन के एक छोटे से टुकड़े के लिए और जमीन का ये टुकड़ा था कोरियन पेनिंस और वो कॉलोनियल पावर्स थी जापान और रूस दोनों में भयानक जंग हुई और इसमें जापान जीत गया जिसके बाद उसने कोरिया को गुलाम बना लिया अब कहने को कोरिया का अपना शासक था लेकिन पूरी ताकत जापान के हाथ थी 1926 में यह शासक भी मर गया और कोरिया पूरी तरह जापान के हाथों की कठपुतली बनता चला गया साल 1945 तक कोरिया पर जापान का शासन चला वो भी बिना कोरिया के रोक टोक के लेकिन 2 सितंबर 1945 को जापान दूसरा विश्व युद्ध हार गया इसी के साथ कोरिया भी उसके हाथ से निकल गया वहीं बिना लीडर के कोरिया का फ्यूचर अब बीच में लटक गया कोई कुछ सोच पाता इससे पहले कोल्ड वॉर शुरू हो गया जिसमें आमने-सामने थे सोवियत रूस और अमेरिका इस दौरान दोनों ने आपस में डिसाइड किया कि भाई कोरिया को आधा-आधा बांट लेंगे अगस्त 1945 में कोरिया के बीचोंबीच एक लकीर खींच गई अमेरिका के पास गया साउथ का हिस्सा यानी रिपब्लिक ऑफ कोरिया उर्फ साउथ कोरिया वहीं सोवियत के पास आया नॉर्थ का

हिस्सा यानी डेमोक्रेटिक पीपल्स रिपब्लिकन ऑफ कोरिया मींस नॉर्थ कोरिया दोनों ही देश अपने-अपने हिस्से को कंट्रोल कर रहे थे नॉर्थ कोरिया में तानाशाह किम इल सुंग की हुकूमत थी जिसकी नजर अब साउथ कोरिया पर भी थी उसने 1950 में साउथ कोरिया पर अटैक कर दिया इस युद्ध में उसे चीन और सोवियत रूस का भी सपोर्ट मिला चीन में कुछ साल पहले तक कम्युनिस्ट और नेशनलिस्ट के बीच लड़ाई भी चल रही थी इसमें कोरिया के तकरीबन 50000 सैनिक कम्युनिस्टों के सपोर्ट में लड़ाई लड़ रहे थे चीन में माओं की जीत के बाद यह सैनिक उत्तर कोरिया चले गए ताकि किम इल सुंग की तरफ से युद्ध कर सके दूसरी तरफ रूस के तानाशाह स्टालिन भी किम इल सुंग को हथियारों को सप्लाई कर रहे थे यानी नॉर्थ कोरिया के ऊपर सोवियत यूनियन और चीन की कम्युनिस्ट ताकतों का हाथ था लिहाजा इस लड़ाई में साउथ कोरिया कमजोर होने लगा और किम इल सुंग ने एक-एक करके साउथ के कई हिस्सों पर कब्जा करना शुरू कर दिया अमेरिका इस हार से परेशान था उसने यूनाइटेड नेशन में इस युद्ध के खिलाफ एक प्रपोजल पास करवाया और साउथ कोरिया की मदद के लिए अपनी सेना भेज दी अमेरिका आते ही युद्ध का पासा पलटने लगा नॉर्थ कोरिया के शहरों पर अमेरिका ने जमकर बमबारी की कहा जाता है कि अमेरिका ने नॉर्थ कोरिया के करीब 6वा लाख टन विस्फोटक का इस्तेमाल किया जी हां इनमें लाखों लोग मारे गए अमेरिका के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट रह चुके डीन रस्क ने एक बार कहा था कि नॉर्थ कोरिया में जो भी हिलती डुल चीज दिखी उन सबके ऊपर अमेरिका बम गिराता चला गया ऐसा लगने लगा था कि अमेरिका जल्द ही नॉर्थ कोरिया पर कब्जा कर लेगा लेकिन तभी चीन के सैनिक इस युद्ध में उतर गए लड़ाई लंबी खींचने लगी हालांकि दोनों पक्ष ये समझ गए थे साहब कि अगर युद्ध यूं ही चलता रहा तो सिवाय नुकसान के कुछ हासिल ही नहीं होगा लेकिन युद्ध रुके कैसे समझौता कैसे हो अब इसको लेकर चर्चाएं होने लगी पहला मुद्दा बॉर्डर का था दोनों देशों के बीच बॉर्डर लाइन कैसे डिसाइड हो कई राउंड की बातचीत के बाद इस समस्या का हल भी निकाल लिया गया डिसाइड हुआ कि भाई 1945 वाली बॉर्डर लाइन ही मानी जाएगी बता दें कि कोरियन पेनिंस सुला को बांटने वाली जो लाइन है उसे कोरियन डिमिलिटराइज्ड जोन या डी एएमजी कहा जाता है यह 4 किलोमीटर की एक पट्टी है जो नॉर्थ और साउथ कोरिया को बांटती है युद्ध रुकने के बाद यह वह हिस्सा था जहां आर्म फोर्सेस को जाने की परमिशन नहीं थी खैर यहां पर मसला हल हो जाना चाहिए था लेकिन फिर इससे भी बड़ी समस्या सामने आ गई इस युद्ध की वजह से दोनों खेमों के लाखों लोग कैद थे अमेरिका ने नॉर्थ कोरिया के 170000 सैनिकों को बंदी बना रखा था समझौते के अकॉर्डिंग इन लोगों की अदला बदली होनी जरूरी थी लेकिन न मौके पर अमेरिका अड़ गया उसका कहना था कि कई सैनिक वापस चीन या नॉर्थ कोरिया जाना नहीं चाहते ऐसे में वह जबरदस्ती उन्हें एक कम्युनिस्ट सरकार को नहीं सौंप सकता यहीं से इस युद्ध में भारत की एंट्री हुई भारत यूनाइटेड नेशन सिक्योरिटी काउंसिल का टेंपरेरी मेंबर था लेकिन नेहरू नॉन अलाइन मेंट की पॉलिसी फॉलो कर रहे थे इसलिए जब यूनाइटेड नेशन में इस युद्ध के खिलाफ प्रस्ताव लाया गया

तो भारत वोटिंग के लिए नहीं आया अमेरिका चाहता था कि यूनाइटेड नेशन की सेना के साथ भारत भी अपनी सेना भेजे लेकिन भारत ने इससे इंकार कर दिया अब एक तो भारत आजाद हुए महज 3 साल हुए थे दूसरा वह युद्ध नहीं चाहता था इसलिए उसने अमेरिका की बात मानने की बजाय सेना के मेडिकल कोर की एक टुकड़ी भेज दी ताकि युद्ध में घायल लोगों की मदद हो सके भारत ने कई बार ब्रिटेन की मदद से समझौता कराने की कोशिश भी की लेकिन बार-बार मसला एक सेम मुद्दे पर आकर ठहर जाता था अमेरिका युद्ध में बंदी बनाए गए सैनिकों को वापस नॉर्थ कोरिया को सौंपने को तैयार नहीं था अब इस बीच भारत ने नवंबर 1952 में यूनाइटेड नेशंस में एक प्रपोजल पेश कर दिया जो पास भी हो गया इस प्रस्ताव के तहत एक कमीशन का गठन होना था जिस उसका नाम था न्यूट्रल नेशन सुपरवाइजरी कमीशन यानी एन एनएससी इस कमीशन में टोटल पांच देश इंक्लूड थे वेस्टर्न कंट्रीज की तरफ से स्वीडन और स्विट्जरलैंड और चीन और रूस की तरफ से पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया इसके अलावा पांचवां सदस्य भारत था इस कमीशन का बंदी बनाए गए सैनिकों की अदला-बदली का काम देखना था जिसे लेकर मई 1952 में एक ऑपरेशन चलाया गया ऑपरेशन लिटिल स्विच जिसमें दोनों खेमों ने घायल हुए कैदियों की अदला-बदली की लेकिन इसके बाद भी कई हजारों युद्ध बंद बचे हुए थे जिनकी अदला-बदली होनी थी इनमें से कई तो ऐसे थे जो अपने देश वापस नहीं लौटना चाहते थे इसलिए इन्हें एनएन एससी को सौंपा गया और एनएनएस के चीफ थे भारतीय सेना के मेजर जनरल के एस थमाया इसके अलावा भारत ने कैदियों की देखरेख के लिए एक आईसीएफ यानी इंडियन कस्टोडियल फोर्स भेजी जिसमें भारत के 6000 सैनिक शामिल थे और इसे लीड कर रहे थे लेफ्टिनेंट जनरल शंकर राव पांडुरंग पाटील थोरात अब इसके अलावा जैसे कि हमने आपको पहले बताया कि भारतीय सेना की मेडिकल कोर की एक टुकड़ी कोरिया में तैनात थी जिसे रवाना करते हुए प्रधानमंत्री नेहरू ने साफ-साफ इंस्ट्रक्शन दी थी कि किसी भी हालत में उन्हें न्यूट्रल ही रहना है और केवल खुद की सेफ्टी के लिए वेपंस का यूज करना है खैर कैदियों को साउथ कोरिया के कैंपस में रखा गया था इसलिए यहीं पर इंडियन कस्टोडियल फोर्स की टुकड़ियों को तैनात भी किया गया इस वजह से इस जगह को हिंद नगर का नाम दिया गया आईसीएफ के आने से पहले बंदियों के कैंपस को अमेरिकन कंट्रोल कर रहा था इन कैंपस की देखभाल बिल्कुल आसान काम नहीं था एक तो कड़ाके की ठंड पर पती थी दूसरा कैद किए गए सैनिकों के बीच अक्सर लड़ाई होती रहती है और वह अग्रेसिव हो जाती थे.

इसके बावजूद आईसीएफ की टीम स्ट्रिक्ट एक्शन नहीं ले सकती थी इन सब के बीच एनएनएस के चीफ के जनरल थिमैया के सामने एक बड़ा चैलेंज भी था कैदी सैनिकों में से कई जिसमें अमेरिकन सिटीजन भी शामिल थे अपने देश नहीं लौटना चाहते थे और इनका फैसला अब एनएनएस स को करना था दिसंबर 1953 में यूनाइटेड नेशंस ने इन सैनिकों को मनाने की एक आखिरी कोशिश की आखिर में 22000 सैनिक अपने देश लौटने को रेडी भी हो गए लेकिन करीब 88 सैनिक अब भी ऐसे थे जो वापस जाने के लिए राजी नहीं थे साहब आखिर में जनरल थिमैया ने डिसाइड किया कि इन्हें भारत ले जाया जाएगा 1955 तक इनमें से छह वापस अपने देश लौट गए लेकिन 82 ऐसे थे जिनमें से कुछ ने भारत को ही अपना घर बना लिया और बाकी दूसरे मुल्कों में चले गए इस युद्ध में भारतीय सैनिकों ने जो हेल्प की उसके लिए कोरिया के लोग काफी सालों तक उन्हें याद करते रहे खासकर मेडिकल कोर की सर्विसेस को दरअसल इस युद्ध में घायल होने वाले आम सिटीजंस को अमेरिकी सेना की हेल्प नहीं मिलती थी ऐसे में इन लोगों की मदद भारतीय सेना की मेडिकल कोर ने की उन्होंने कोरिया में चार अस्पताल बनाए कोरियन डॉक्टर्स को ट्रेन किया और साथ ही साथ घायलों का इलाज भी किया इस वजह से कोरिया में इन भारतीय सैनिकों को स्पेशल नाम दिया गया एंजल्स इन मैरून पेयर यानी मैरून टोपी वाले फरिश्ते अब जैसे कि हमने आपको बताया था कि नॉर्थ कोरिया और साउथ कोरिया के बीच डीएमसी नाम की एक पट्टी बनाई गई है इस इलाके में कोरिया युद्ध का एक मेमोरियल बना हुआ है जिसमें 22 देश के झंडे लगे हुए हैं यह वह सभी देश हैं जिन्होंने इस युद्ध में हिस्सा लिया था इनमें से एक झंडा भारत का भी है कोरिया युद्ध में भारत कंट्रीब्यूशन देने की वजह से भारत नॉन अलाइन धड़े का एक बड़ा लीडर बनकर उभरा और नेहरू वर्ल्ड लीडर के तौर पर उभर कर सामने आया लेकिन अब कोरिया भारत के इन एहसानों को भूल गया है स्पेशली साउथ कोरिया इंडियंस एंड पाकिस्तान आर नॉट अलाउड इस्लाम एंड हिंदुइज्म आउट यह स्टेटमेंट आपको साउथ कोरिया के कई क्लब्स और बार्स के बा बाहर बोल्ड लेटर्स में लिखा हुआ मिल जाएगा और साउथ कोरिया ही क्यों आंध्र प्रदेश के अनंतपुर चलकर ही देख लेते हैं जहां किया मोटर्स के आसपास सभी रेस्टोरेंट्स केवल साउथ कोरियंस के लिए ही रिजर्व्ड है वो डंके की चोट पर कहते हैं साहब कि स्ट्रिक्टली नो एंट्री पॉलिसी फॉर इंडियंस वाह मानना पड़ेगा कि इंडिया में भी साउथ कोरियंस का क्या स्वैग है बिल्कुल वैसा जैसा ब्रिटिश राज में अंग्रेजों का होता था वो भी बड़े चौड़ में रेस्टर के बाहर लिखवा दे थे कि इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट अलाउड मगर सरप्राइजिंगली यह वही साउथ कोरिया है जिसके लोगों को बचाने के लिए एक समय पर भारत सबसे पहले दौड़ा था अगर आपका चेहरा चांद सा खूबसूरत नहीं है और आपके पास बेदाग गोरापन नहीं है तो एक रिस्पेक्टेड नौकरी तो भूल ही जाइए क्योंकि उनकी नजर में शायद आप यह डिजर्व ही नहीं करते एक्चुअली यहां रेसिजम बहुत ज्यादा है यहां जॉब के लिए आपके रिज्यूमे के साथ-साथ आपकी फोटोज हाइट और ब्यूटी स्टैंडर्ड्स की सारी इंफॉर्मेशन ली जाती हैं अगर आप उन पर खरा उतरते हैं तो नौकरी पक्की वरना थोड़ा और मेकअप पोत कर आइएगा साहब या तो प्लास्टिक सर्जरी करवा लीजिएगा आज साउथ कोरिया में वर्किंग कंडीशन के हाल इतने बुरे हैं कि हर साल यहां 20 पर से भी ज्यादा यूथ प्लास्टिक सर्जरी कराती है फिर चाहे इसके लिए उन्हें कितने ही जोखिम भरे ब्यूटी ट्रीटमेंट से क्यों ना गुजरना पड़े और सरप्राइजिंगली कोरियन गवर्नमेंट भी इस रेसिस्ट ट्रेंड को खुलेआम सपोर्ट करती है साउथ कोरिया में खूबसूरती का ऑब्सेशन आज से नहीं है बल्कि वैसे दशकों से चला रहा है सुंदरता की यही क्रेजीनेस इंडिया में लैक करती है और हम कहीं ना कहीं कहीं इनके ब्यूटी स्टैंडर्ड्स पर खरा नहीं उतरते हैं

इसलिए इंडियंस को साउथ कोरिया में रंग को लेकर भेदभाव झेलना पड़ता है अब क्योंकि ज्योग्राफिकली कंडीशन के चलते भी ज्यादातर इंडियंस रंग में सांवले होते हैं इसलिए हम उनके परफेक्ट ब्यूटी अपीयरेंस में फिट नहीं होते ऐसा केवल हम नहीं कह रहे हैं बल्कि साउथ कोरिया में पहले से रहने वाले कई इंडियंस का भी मानना है वह भी बताते हैं कि कैसे जब वह मेट्रो सीट्स पर बैठते हैं तो उनके आसपास बैठे कोरियंस साथ बैठना भी पसंद नहीं करते हैं इसी तरह कुछ भारतीय यह किस्सा भी सुनाते हैं कि यह कोरिया में शॉपिंग के दौरान अगर वह किसी भी कपड़े या प्रोडक्ट को टच भी करते हैं तो उनके द्वारा छुए गए सामान को शॉप ओनर्स दोबारा साफ करते हैं इनके साथ बात करना तो भूल ही जाइए कई कोरियंस तो इंडिया के करीब खड़ा होना भी पसंद नहीं करते हैं जैसे कि हमें कोई बीमारी हो इतने हाईली एडवांस होने के बाद भी साउथ कोरिया के लोग भारत को केवल एक पुअर डेवलपिंग नेशन की तरह ही देखते हैं अब ऐसा इसलिए भी है क्योंकि साउथ कोरिया में कई इंडियन माइग्रेंट वर्कर्स क्लीनिंग स्वैपिंग और फिश कैचिंग जैसे जॉब करते दिख जाते हैं ऐसे में इस देश के लोगों को लगता है कि भाई भारत केवल एक गरीब देश है और यहां के लोग भद्द दिखाई देते हैं वहीं गोरे अमेरिकंस इनके लिए खूबसूरती की मूरत से कम नहीं है उनके प्रति इनका बिहेवियर एक काफी वेलकमिंग है कैफे से लेकर रेस्टोरेंट बार्स तक में उनकी एंट्री पर कोई रिस्ट्रिक्शंस नहीं है और यह सब सिर्फ इसलिए क्योंकि वह ज्यादा गोरे दिखाई देते हैं खैर जो भी हो लेकिन इस रेसिजम के आड़ में कोरिया को भारत के एहसानों को भूलना नहीं चाहिए |

By Naveen

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