गुजरात के कच्छ जिले से 120 किमी दूर बसे एक गांव धोलावीरा में में जो कि मिस्र की सभ्यता से भी पुराना है यानी कि लगभग 5000 साल पुराना है जो किसी जमाने में इंडस वैली सिविलाइजेशन के शहरों में से एक हुआ करता था बता दें कि भारत के पश्चिम छोर पर एक बहुत बड़ा सफेद मैदान है जिसे हिंदी में कच्छ का रण और इंग्लिश में रन ऑफ कच्छ कहते हैं दरअसल कच्छ का अर्थ होता है कछुवा और अगर हम भारत के मैप में देखें तो गुजरात का यह भाग कछुए के जैसा उठा हुआ दिखाई देता है इसी कारण इसे रन ऑफ कच कहा जाता है यहां का मैदान लगभग 27000 स्क्वायर किलोमीटर में फैला हुआ है जो कि किसी जमाने में समंदर का हिस्सा हुआ करता था लेकिन बहुत से भौगोलिक बदलावों के कारण यह अब केवल नमक का बंजर भूमि ही बनकर रह गया है पुराने जमाने में तो यह वाटर ट्रांसपोर्टेशन के लिए सबसे सुविधाजनक माना जाता था यहां पर विभिन्न जगहों से आकर जहाज रुका करते थे इसी कारण यह खूब समृद्ध भी था यहां पर विभिन्न गांव भी बसा करते थे और इन्हीं में से एक गांव हुआ करता था धोलावीरा जो कि हड़प्पा सभ्यता के समय का माना जाता है इस गांव की रन ऑफ कच्छ यानी कि नमक के मैदान से दूरी लगभग 88 किलोमीटर की है जो कि अब वर्ल्ड
हेरिटेज साइट में भी शामिल हो चुका है बता दें कि धौलावीरा अपने समय का एक उन्नत शहर हुआ करता था जिसे तीन भागों में बांटा गया था पहला भाग का नाम था कीट देल यानी कि किले के मैदान वाला क्षेत्र या गढ़ी क्षेत्र दूसरा भाग हुआ करता था कोस्टल और तीसरा था वैली यानी कि राजप्रासाद और उप प्रासाद इनके बाकी दो भाग भी हुआ करते थे जो कि मिडल टाउन और लोअर टाउन अर्थात मध्य नगर और निम्न नगर लगभग 3000 बीसी के समय जब इस शहर को बसाया गया था तो इसका आकार एक किले के जितना ही था फिर 2600 बीसी आते-आते यह एक बड़े शहर में तब्दील हो चुका था यहां पर 17 गेट्स भी पाए गए हैं जिनमें से पूर्वी और उत्तरी द्वार बड़े ही विस्तृत रूप से देखने को मिला करते हैं यहां पर आपको साउथ साइड में गेट देखने को नहीं मिलते हैं क्योंकि प्राचीन समय में भारतीय संस्कृति के अनुसार साउथ में गेट होना शुभ नहीं माना जाता था इन गेट्स को बनाने के लिए यहां के लोकल मटेरियल चूना पत्थर का ही इस्तेमाल किया गया था इस शहर के ऊपर और नीचे मनहर और मंसर नाम की दो नदियों के होने के भी प्रमाण मिलते हैं यहां की संरचना को देखने पर मालूम पड़ता है कि इन दोनों नदियों के पानी के बहाव को यहां पर बने रिजर्व में जमा किया जाता था बता दे कि रिजर्वर या जलाशय वह जगह होती
है जहां पर अच्छी खासी मात्रा में पानी को स्टोर किया जाता है ताकि जरूरत के समय इस पानी को यूज किया जा सके नदियों के पानी के बहाव को मोड़ने के लिए यहां पर चेक डम्स का निर्माण किया गया था साथ ही यहां पर पानी को विभिन्न जगहों पर सप्लाई कर ने के लिए आपको नहर व्यवस्था भी देखने को मिलती है यहां पर बने रिजर्वर लगभग रेक्टेंगल शेप के हुआ करते थे जिसकी गहराई 75 मीटर की हुआ करती थी साथ ही इनमें नीचे उतरने के लिए तीन सीढ़ियां भी बनाई गई थी आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इन जलाशयों के अंदर ही आपको एक कोने पर चट्टान काटकर बनाया हुआ एक कुआ देखने को मिलता है इन सबके चलते ही यहां पर बने ईस्टर्न जलाशय को साउथ एशिया का सबसे बड़ा जलाशय माना जाता है इसके अलावा यहां पर यूनिकॉर्न की मूर्तियां मिली हैं जो कि विभिन्न रिचुअल्स को प्रदर्शित करती है अब हम आपको बताते हैं दुर्ग क्षेत्र के दूसरे हिस्से वैली यानी कि उप प्रसाद के बारे में जहां पर आपको ग्रीनरी या अन्नागिरी गहरे हुआ करते थे जिनका यूज राशन यानी कि अनाज आदि स्टोर करने के लिए किया जाता था इन कमरों में ग्रेनरी होने का अंदाजा यहां पर जौ के दाने मिलने के कारण लगाया गया था यह शहर करीब 1500 साल तक बसा रहा और माना जाता है कि यहां के लोग बहुत ही सभ्य हुआ
करते थे उनके पास बहुत ही बढ़िया टेक्नोलॉजी हुआ करती थी इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि उन्होंने 3000 बीसी में ही जमीन के नीचे नालियों का निर्माण कर लिया था पक्की ईंट का भी व इस्तेमाल किया करते थे इनका यह शहर एक प्लेटफार्म पर बसा था इसका मींस यह था कि वे सब टाउन प्लानिंग के बारे में जानकारी रखा करते थे और उनको ट्रिग्नोमेट्री की भी समझ हुआ करती थी वो ऐसी कैलकुलेशन की भी समझ रखा करते थे जो कि एक महानगर को बसाने के लिए जरूरी है पर दोस्तों उस टाइम ऐसा क्या रहा होगा जिसकी हेल्प से वह इन नक्शों को समझाया करते होंगे या फिर
डिजाइन को तैयार करते होंगे तो क्या हम ऐसा मान सकते हैं कि उस टाइम के लोग मिट्टी के बने मोल्ड का यूज करते होंगे इस बात को भी टला नहीं जा सकता कि वे सिविल इंजीनियरिंग हाइड्रोलॉजी और जियोलॉजी की भी अच्छी जानकारी रखा करते थे यह एक ऐसा शहर था जहां पर पानी भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था अगर हम वर्तमान समय से अंदाजा लगाएं तो आज हमारे पास पानी तो है लेकिन हम उसका सही तरीके से संरक्षण नहीं कर पा रहे हैं लेकिन धौलावीरा के लोग इतने प्राचीन समय में भी दोनों नदियों मंसर और मनहर के पानी को इस तरीके से संरक्षित करते थे कि हर एक रिजर्वर एक दूसरे से कनेक्टेड था जिससे शहर में हर जगह पानी पर्याप्त मात्रा में पहुंच जाता था इस तरह यह लोग तो पानी को संरक्षित कर सुख पूर्वक जीवन बिताते रहे लेकिन अगर हमने इसका उचित संरक्षण नहीं किया तो जरूर युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी या फिर हम इस प्राचीन सभ्यता से सीख लेकर उनकी स्ट्रेटेजी का यूज कर सकते हैं धोलावीरा के लोग उस जमाने में मनके यानी बीड्स बनाया करते थे जिसका व्यापार उस समय बहुत ही अच्छा चला करता था यमन के मेसोपोटामिया में भी मिले हैं जो कि धोलावीरा की तरह ही एक एंसेट सिविलाइजेशन हुआ करती थी उप प्रसाद से उत्तर की ओर में य जहां पर मन
का निर्माण की कार्यशाला के भी कुछ प्रमाण मिले हैं जहां पर आपको मन के चमकाने के भी कुछ प्रमाण देखने को मिलते हैं जिसमें एक रेक्टेंगल शेप के कमरे के अंदर बीड पॉलिशर मिला है इस पॉलिशर में कई सारे ग्रुप्स बने हुए हैं जिनके बीच का भाग गहराई लिए हुए हैं ऐसा माना जाता है कि यह बीच का भाग पुराने समय में मन का निर्माण के टाइम उन्हें ठंडा करने के लिए यूज किया जाता था हालांकि धोलावीरा खोज तो 1968 में ही की गई थी पर 21 सालों तक इसके अवशेष जमीन में ही दबे रहे फिर 1989 में जब आरएस बस्ट ने इसकी खुदाई करवाई तब इसके बारे में जानकारी पूरी तरीके से पता चली कई सालों की मेहनत के बाद यहां से बेश कीमती चीजें मिली और ऊपर की ओर एक पत्थर दिखा बाद में यहां से मिट्टी हटाने पर बहुत से पत्थर दिखाई देने लगे जो शायद किसी पुरानी भाषा या कोट के थे पर इससे जुड़े रहस्य कुछ ऐसी भाषा में मिले जिसे आज तक कोई भी समझ नहीं पाया यहां पर एक-एक करके 10 प्रति पाए गए जो कि सभी वाइट जिप्सम से बने हुए हैं इसमें सबसे अच्छी बात यह है कि यह एविडेंस आर्कोलॉजी को धोलावीरा के गेट के पास मिले हैं तो इसे हम उनके जमाने का साइन बोर्ड मान सकते हैं पर इसको पढ़ नहीं सकते यही सब कारण है कि आज भी धोलावीरा के बहुत से रहस्य छिपे हुए हैं अब हम बात करते हैं इस शहर के सबसे ऊंचे यानी कि गढ़ी क्षेत्र की कालीबंगा और सुर कोटडा की तरह ही यहां के दुर्ग को दो हिस्सों में बांटा गया था यानी कि पूर्व में राज प्रसाद और पश्चिम में उप प्रसाद इस शहर के विभिन्न हिस्सों में आपको बारिश के पानी की निकासी के लिए बहुत अच्छा ड्रेनेज सिस्टम देखने को मिल जाएगा जिसमें शहर की सभी छोटी-छोटी नालियां अंत में कनेक्ट होकर बड़े नाले से मिल जाती हैं यहां की मुख्य नाली इतनी ऊंची थी कि एक सामान्य व्यक्ति इसमें आसानी से चल सकता था इन नालियों से लाए गए पानी को उप प्रसाद के पश्चिम में बने हुए बड़े रिजर्वर में स्टोर किया जाता था यहां पर एक बड़ा कुआं दो अलग-अलग वाटर टैंक आदि पाए गए हैं यहां पर कुएं से रहट यानी कि पानी निकालने के सिस्टम के एविडेंस भी देखने को मिलते हैं अगर हम इसे भारत का मैनहैटन कहे तो गलत नहीं होगा क्योंकि यह शहर अचानक से गायब हो गया था जिस कारण इससे जुड़े रहस्य भी शहर के लोगों के साथ ही चले गए दोस्तों धोलावीरा की खोज से हमें वहां के सांस्कृतिक पहलुओं की भी जानकारी मिलती है यहां पर पाई गई सामाजिक संरचनाओं से पता चलता है कि ये लोग यहां पर इकट्ठे रहा करते थे जो कि आज के जैसे विभिन्न वर्गों में भी विभाजित थे जिसमें व्यापारिक शिक्षक निर्माण कार्य करने वाले आदि शामिल थे हालांकि यहां पर व्यापार का मुख्य स्थान था जो कि बड़े पैमाने पर किया जाता था यहां के निर्माण कार्य और शहरी योजना में आप यह भी देख सकते हैं कि यह सब समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा मिलकर ही किया गया होगा तभी धौलावीरा जैसी सभ्यता विकसित हो सकती है यहां कम्युनिटी प्रोग्राम्स के लिए पहले बड़े-बड़े होल बनाए गए होंगे जिनके खंडार आज भी देखने को मिलते हैं इसके अलावा यज्ञ धोलावीरा के बाजार आदि भी देखने को मिलते हैं इस सब के अलावा यहां पर आपको हड़प्पा सभ्यता का
सबसे बड़ा और पुराना कब्रिस्तान भी देखने को मिल सकता है जिसका इस्तेमाल 3200 ईसा पूर्व से 2600 ईसा पूर्व तक के बीच 500 साल तक हुआ हालांकि अब तक की खुदाई में यहां पर एक ऐसा मानव कंकाल मिला है जो पूरी तरह से जुड़ा हुआ है यानी कि इसमें कोई भी बिखराव नहीं है साथ ही इसके सिर की हड्डियां और दांत भी जस के तस हैं इन कंकालों के साथ वैज्ञानिकों को और भी कई हैरान करने वाली चीजें मिली है जिनका इस्तेमाल लोगों को दफनाने वक्त किया जाता था जैसे कि 100 से ज्यादा चूड़ियां शंख से बने मोती चीनी मिट्टी के बर्तन थाली कटोरी घड़े पानी के गिलास और बोतल आदि भी मिले हैं इन कब्रिस्तान की एक और खासियत भी है यह दफनाने वाले गड्ढे अलग-अलग दिशा की ओर इंडिकेट करते हैं जिनमें से कुछ की आकृति अंडाकार है तो कुछ की आयताकार साइंटिस्ट जोनाथन मार्क केनोर के मुताबिक यहां दफनाने के पहले निकलने वाली शवयात्रा में कोई भी दिखावा नहीं होता था जैसा कि मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता में देखने को मिलता था अगले जन्म को देखते हुए यहां शव के साथ कोई भी आभूषण या हथियार कुछ भी नहीं रखा जाता था उन्होंने यह भी कहा कि यहां के ज्यादातर शवों को कपड़ों में लपेटकर लकड़ी से बने आयताकार ताबूत में रखा जाता था ताबूत को कब्र में डालने से पहले गड्ढे में मिट्टी के बर्तन डाले जाते थे इस तरह यहां पर आप जितनी खुदाई करते जाएं उतने अवशेष मिलते जाएंगे लेकिन कुछ समय बाद धोला वीरा को वापस मिट्टी में कवर कर दिया जाएगा क्योंकि बारिश आदि के मौसम में यहां के पत्थरों का क्षरण हो रहा है|